मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

कविता - गाँव का हूँ , गाँव में हूँ,

Mohan Mouri
 गाँव का हूँ, गाँव मे हूँ...

गाँव का हूँ ,गाँव में हूँ।
पंखा,कूलर,ए.सी नहीं,
नीम,आम,बरगद,पीपल,बबूल के छांव में हूँ।

दुनिया गाए हिप हॉप,रॉक और पॉप,
लेकिन मैं तो मग्न प्रकृति में जीवों की सुरीली आवाज की राग में हूँ।
जीवन की सारी बोध, स्कूल और कॉलेज में नहीं,
इसलिए बड़े- बुज़ुर्गो के पाँव  में हूँ।
गाँव का हूँ,गाँव में हूँ।

पेट में बर्गर,पिज्जा और कोक नहीं,
दही,दूध और छाछ है।
एसीलिए जिम, कुँग फू कराटे नही,
कुश्ती की दाव में हूँ।
गाँव का हूँ, गाँव में हूँ।

धान गेहूँ सरसों वाले हरे भरे खेत में हूँ,
भादो के अंधेरिया में हूँ,  जेठ की तपती दूपहरिया में हूँ।
पूस की भोरहरिया में हूँ, नदी, जंगल और खेत में हूँ।
गर्मी की दोपहरी पेड़ की छांव में हूँ, सभी सोशल साइट्स से जुड़ा हूँ।
गाँव का हूँ, गाँव में हूँ।

देश के सचे सपूत जवान ,और किसान में हूँ।
है प्रीत जहाँ की रीत सदा, उस भारत की पहचान में हूँ।
झोल झाल ना भागा दौड़ी,
मैं तो बिलकुल  इतमीनान में हूँ।
गाँव का हूँ, गाँव में हूँ।

माई के दूलार में हूँ, बाबु जी के फटकार में हूँ।
साथ खेले आँख-मिचौली,मैं तो ऐसे यार में हूँ।
दादा-दादी भी हैं, बड़के,मँझले भैया-भाभी भी हैं,
हम साथ-साथ हैं कहने वाले संयुक्त परिवार में हूँ
गाँव का हूँ, गाँव में हूँ।

- मोहन मोरी, अम्बासोटी

1 टिप्पणी: